بسم الله الرحمان ال رحیم
स्वाइन फ्लू , इनफ्लुएंजा यानी फ्लू वायरस के अपेक्षाकृत नए स्ट्रेन
इनफ्लुएंजा वायरस A से होने वाला इनफेक्शन है। इस वायरस को ही H1N1 कहा जाता है। इसके इनफेक्शन ने 2009 और 10 में महामारी का रूप ले लिया था-लेकिन WHO ने 10 अगस्त 2010 में इस महामारी के खत्म होने का भी ऐलान कर दिया था। अप्रैल
2009 में इसे सबसे पहले मैक्सिको में पहचाना
गया था। तब इसे स्वाइन फ्लू इसलिए कहा गया था क्योंकि सुअर में फ्लू फैलाने वाले
इनफ्लुएंजा वायरस से ये मिलता-जुलता था।
वैसे सर्दी-जुखाम जैसे लक्षणों के इलाज में इस्तेमाल होने
वाली तुलसी, गिलोए, कपूर, लहसुन, एलोवीरा, आंवला जैसी आयुर्वेदिक दवाईयों का भी स्वाइन फ्लू के इलाज
में बेहतर असर देखा गया है। सर्दियों में इन्हें लेने से वैसे भी जुखाम तीन फिट की
दूरी पर रहता है, और स्वाइन फ्लू
के वायरस से बचने के लिए भी इतने ही फासले की जरूरत होती है।
IN THIS BLOG YOU WILL FIND USEFUL ISLAMIC DUA, QURAN'S SHORT AAYAT IN VARIOUS LANGUAGES, SUFI BUZURG QUOTES AND LOTS OF INTERESTING VIDEOS OF NAAT E PAAK AND SUFI KALAMS WITH LYRICS....
Tuesday, 22 August 2017
Tuesday, 15 August 2017
HAPPY INDEPENDENCE DAY- BEST POETRY BY AJMAL SULTANPURI KAHA HAI MERA HINDUSTAN
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान,
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मेरे बचपन का हिन्दुस्तान – मेरे बचपन का हिन्दुस्तान
न बंगलादेश न पाकिस्तान
मेरी आशा मेरा अरमान – मेरी आशा मेरा अरमान
वो पूरा-पूरा हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
न बंगलादेश न पाकिस्तान
मेरी आशा मेरा अरमान – मेरी आशा मेरा अरमान
वो पूरा-पूरा हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
वो मेरा बचपन वो स्कूल, वो कच्ची सड़कें उड़ती धूल
लहकते बाग़ महकते फूल – लहकते बाग़ महकते फूल
वो मेरा खेत मेरा खलियान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
लहकते बाग़ महकते फूल – लहकते बाग़ महकते फूल
वो मेरा खेत मेरा खलियान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
वो उर्दू गज़ले हिंदी गीत – वो उर्दू गज़ले हिंदी गीत
कहीं वो प्यार कहीं वो प्रीत
पहाड़ी झरनों के संगीत
देहाती लहरा पूर्वी तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
कहीं वो प्यार कहीं वो प्रीत
पहाड़ी झरनों के संगीत
देहाती लहरा पूर्वी तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम – जहाँ के कृष्ण जहाँ के राम
जहाँ की श्याम सलोनी शाम – जहाँ की श्याम सलोनी शाम
जहाँ की सुब्ह बनारस धाम – जहाँ की सुब्ह बनारस धाम
जहाँ भगवान करें इस्नान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जहाँ की श्याम सलोनी शाम – जहाँ की श्याम सलोनी शाम
जहाँ की सुब्ह बनारस धाम – जहाँ की सुब्ह बनारस धाम
जहाँ भगवान करें इस्नान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जहाँ थे तुलसी और कबीर – जहाँ थे तुलसी और कबीर
जायसी जैसे पीर फ़क़ीर
जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर – जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर
जहाँ थे रहमन और रसखान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जायसी जैसे पीर फ़क़ीर
जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर – जहाँ थे मोमिन ग़ालिब मीर
जहाँ थे रहमन और रसखान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
वो मेरे पुर्खों की ज़ागीर – वो मेरे पुर्खों की ज़ागीर
कराची लाहौर और कश्मीर
वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर – वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर
वो पूरा पूरा हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
कराची लाहौर और कश्मीर
वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर – वो बिल्कुल शेर की सी तस्वीर
वो पूरा पूरा हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जहाँ की पाक पवित्र ज़मीन – जहाँ की पाक पवित्र ज़मीन
जहाँ की मिट्टी खुल्दनशीन
जहाँ महाराज मोयुद्दीन – जहाँ महाराज मोयुद्दीन
गरीब नवाज़ हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
जहाँ की मिट्टी खुल्दनशीन
जहाँ महाराज मोयुद्दीन – जहाँ महाराज मोयुद्दीन
गरीब नवाज़ हिन्दुस्तान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
ये भूखा शायर प्यासा कवि – ये भूखा शायर प्यासा कवि
सिसकता चाँद सुलगता रवि
ये भूखा शायर प्यासा कवि – सिसकता चाँद सुलगता रवि
हो जिस मुद्रा में ऐसी छवि, करा दे अज़मल को जलपान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
सिसकता चाँद सुलगता रवि
ये भूखा शायर प्यासा कवि – सिसकता चाँद सुलगता रवि
हो जिस मुद्रा में ऐसी छवि, करा दे अज़मल को जलपान
मैं उसको ढूंड रहा हूँ – मैं उसको ढूंड रहा हूँ
मुसलमां और हिन्दू की जान कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान, मैं उसको ढूंड रहा हूँ
Wednesday, 2 August 2017
SUFI HAMIDUDIN NAGAURI R.A. MAZAR- RAJASTHAN INDIA-
بسم الله الرحمان الرحیم
हमीदुद्दीन नागौरी (1192-1274 ई.) ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरु के आदेशानुसार सूफ़ी मत का प्रचार-प्रसार किया। यद्यपि इनका जन्म दिल्ली में हुआ था, लेकिन इनका अधिकांश समय नागौर, राजस्थान में ही व्यतीत हुआ था।
- राजस्थान में अजमेर के बाद नागौर ही सूफ़ी मत का प्रसिद्ध केन्द्र रहा था।
- मुइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य हमीदुद्दीन नागौरी ने गुरु के आदेश से सूफ़ी मत का प्रचार किया।
- इन्होंने अपना जीवन एक आत्मनिर्भर किसान की तरह गुजारा था।
- नागौर से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 'सुवाल' नामक गाँव में इन्होंने खेती भी की।
- ये पूर्णतः शाकाहारी थे एवं अपने शिष्यों से भी शाकाहारी बने रहने को कहते थे।
- इनकी ग़रीबी को देखकर नागौर के प्रशासक ने इन्हें कुछ नक़द एवं ज़मीन देने की पेशकश की थी, जिसे इन्होंने अस्वीकार कर दिया।
- हमीदुद्दीन नागौरी समन्वयवादी थे और इन्होंने भारतीय वातावरण के अनुरूप सूफ़ी आन्दोलन को आगे आगे बढ़ाया।
- नागौर में चिश्ती सम्प्रदाय के इस सूफ़ी संत की मजार आज भी इनकी याद दिलाती है।
- इस मजार पर मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने एक गुम्बद का निर्माण करवाया था, जो 1330 ई. में बनकर पूर्ण हुआ।
हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि का नाम मुहम्मद है और लक़ब हमीदुद्दीन, सुल्तानुत्तारिकीन, सवाली, सूफी, सईदी और नागौरी हैं। आपके वालिद का नाम हज़रत अहमद था। आपके वालिद जब लाहौर से देहली तश्रीफ़ लाए उस वक़्त एक अरबी और इल्मे नुजूम के जानकार बुजुर्ग की लड़की (वालदा हज़रत सूफ़ी साहब) से आपका निकाह हुआ। हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी जब अपनी मां के पेट में थे तभी आपके नानाजान ने आपकी मां को खुशख़बरी दे दी थी - ‘‘तेरे लड़का पैदा होगा, जिसका सीना उभरा हुआ होगा, उसका आधा बदन हरा होगा और मेरे मरने के बाद पैदा होगा।’’ हुजूर सूफी हमीदुद्दीन नागौरी अलैहिर्रहमा सन् 589 हिजरी मुताबिक 1193 ईस्वी में देहली फतह के बाद दिल्ली में पैदा होने वाले पहले बच्चे थे।
आपके वालिद और वालदा बहुत नेक थे। हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन खुद फरमाते थे - ”जिस वक़्त में पैदा हुआ उस वक़्त अगर कोई औरत मेरी मां से ज़्यादा नेक होती तो मैं उसके पेट से पैदा होता।“ जिस तरह उस ज़माने में आपकी वालदा बेमिस्ल थीं उसी तरह आपकी बीवी भी अल्लाह वाली और करामत वाली थीं। हजरत सूफी ख़ुद अपने पोते से फरमाते थे - ‘‘जिस वक़्त मैं दूल्हा बना था अगर कोई औरत तुम्हारी दादी से बेहतर होती तो मेरा निकाह उसी से होता।’’ आपकी बीवी का नाम बीबी ख़दीजा था। लाडनूं के हज़रत सय्यद फ़ुज़ैल अहमद हमदानी की बेटी थीं। बीबी ख़दीजा की इबादतो रियाज़त का आलम ये था कि हफ्ते में एक बार नीम के पत्तों से रोज़ा इफ्तार करती और घर के तमाम काम ख़ुद करती थीं। सूफी साहब ने फरमाया है कि -‘‘जिस किसी को कोई ज़रूरत हो तो शैख़ हमीद खुई या चाकपर्रां की दादी के रौज़े पर आकर अपनी ज़रूरत अल्लाह से कहे, इन्शाअल्लाह मन्नत जरूर पूरी होगी। सुब्हानल्लाह। सूफी हमीदुद्दीन नागौरी अलैहिर्रहमां ने बहुत से उलूम हज़रत मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई से हासिल किए हालांकि मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई के अलावा हज़रत हमीदुद्दीन खुई, हज़रत ख़्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाहि अलैहि से भी फैज़ हासिल किया, मगर मुरीद आप सुल्ताने हिन्दुस्तान हज़रत ख़्वाजा मुईनुदद्दीन अजमेरी अलैहिर्रहमा से हुए हैं। हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि को आपकी इबादतो रियाज़त और शफक़त की वजह से ‘‘सुल्तानुत्तारिकीन’’ कहा जाने लगा। बताया जाता है कि नागौर के करीब ही में ‘‘सवाली’’ नाम के एक कस्बे में हज़रत सूफी अलैहिर्रहमां ख़ुद खेती किया करते थे उसी गांव की वजह से आपको ”सवाली“ भी कहा जाने लगा। एक वजह यह भी बताई जाती है कि आपने लोगों को दीनी बातें समाझाने के लिए सवाल-जवाब का तरीक़ा अपनाया था और मुनाजरे में भी आपका कोई सानी न था इसी वजह से आपको ‘‘सवाली’’ भी कहा जाता है। हज़रत के ख़ानदान के बुजुर्गों से यह रिवाज चला आ रहा था कि वे अपने नाम से पहले सूफी लिखा करते थे इसी वजह से आपके नाम से पहले भी सूफी लिखा जाता है और यही वजह है कि आप ‘‘सूफी’’ भी कहलाते हैं। जैसा कि सैरूल आरिफीन में शैख जमाली ने शैख निज़ामुद्दीन औलिया के मुताबिक बयान किया है कि शैख हमीदुद्दीन रहमतुल्लाहि अलैहि के दादा शैख सईद बुजुर्ग हजरत उमर इब्ने ख़त्ताब रदियल्लाहु अन्हु की औलाद से हैं इसलिए आपको ”फ़ारूक़ी“ भी कहा जाता है।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन की शुरूआती तालीम घर पर ही हुई। कुरआन की तफ़्सीर और तफ़्सीरे कश्शाफ की तालीम मौलाना शमसुद्दीन हलवाई से हासिल करने का शरफ़ हासिल किया। हदीस की किताब ”मशारिकुल अनवार“ की तालीम 1220 ईस्वी में मुहद्दिसे बदायूं ने एक ही बैठक में आपको पूरी करवा दी।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि की दरगाह शरीफ सूबए राजस्थान के अज़ीमुश्शान शहर नागौर शरीफ में वाकेअ है। नागौर शहर के बड़े हिस्से में आपकी दरगाह बनी हुई है। दरगाह शरीफ़ में शानदार बुलन्द दरवाजा बना हुआ है, पत्थर पर बारीक नक्काशी देखने के लायक है। बताया जाता है कि यह आलीशान बुलन्द दरवाजा 15 शाबानुल मुअज्ज़म 730 हिजरी मुताबिक़ 1339 ईसवी में सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक की हुकूमत के ज़माने में तामीर हुआ। हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि के मज़ार शरीफ पर कोई इमारत या गुम्बद बना हुआ नहीं है। आपका मज़ार शरीफ खुले आसमान जाल के दरख़्त के नीचे है। मज़ार के चारों तरफ सफे़द संगेमरमर का अहाता बना हुआ है।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी ने अपनी ज़िन्दगी को बेहद सादगी के साथ गुजारा और जो मिला उसी पर इत्मिनान व सब्र करते हुए रब का शुक्र अदा करते। हज़रत सूफी साहब अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी नागौर में सादगी के साथ बसर कर रहे थे। ग़रीबी का आलम ये था। इसी वजह और हालत की बिना पर नागौर के हाकिम ने थोड़ी ज़मीन और कुछ रुपये हज़रत की खिदमत में पेश किए मगर आपने उसे नामंजूर कर दिया। इस पर नागौर के हाकिम ने सुल्तान को खत लिख कर एक गांव और चांदी के 500 टके सूफी साहब की खिदमत में पेश करने के लिए मंगवा लिए। गुरबत का यह आलम था कि हज़रत की लूंगी फट गई थी और बीबी साहिबा के सर पर दुपट्टा भी ठीक से नहीं था जिसकी वजह से माई साहिबा अपने कुर्ते का पीछे का कपड़ा उठा कर सर को ढक लिया करती थीं। माई ख़दीजा ने अपने दुपट्टे और हज़रत की लूंगी के लिए सूत कात रखा था।
हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी हमेशा रोज़ा रखते थे, हज भी कर चुके थे रही नमाज़ तो उसके बारे में आता है कि जिस वक़्त सूफी साहब नमाज़ पढ़ते तो नमाज़ ही में इतने खो जाते कि किसी की ख़बर न होती। एक बार का वाक़िआ है कि आप मस्जिद मे नमाज़ पढ़ रहे थे कि मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई और दूसरे मिलने वाले अजमेर से आपके पास मस्जिद में आए। सूफी साहब उसी तरह नमाज़ की हालत में रहे और इतनी देर नमाज़ में रहे वो लोग वापस चले गए। कुछ दिनों बाद फिर मुलाक़ात हुई तो उन लोगों ने शिकायत की - हम तेरे पास आए थे और तू नमाज़ पढ़ता रहा, तो आपने क़सम खाई कि मुझे बिल्कुल ख़बर न थी कि कौन आया और कौन गया, सुब्हानल्लाह। मौलाना हलवाई खुद मानते थे कि नमाज़ हो तो हमारेे हमीद जैसी। माख़ूज - तारीख़ सूफ़ियाए नागौर
आपके वालिद और वालदा बहुत नेक थे। हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन खुद फरमाते थे - ”जिस वक़्त में पैदा हुआ उस वक़्त अगर कोई औरत मेरी मां से ज़्यादा नेक होती तो मैं उसके पेट से पैदा होता।“ जिस तरह उस ज़माने में आपकी वालदा बेमिस्ल थीं उसी तरह आपकी बीवी भी अल्लाह वाली और करामत वाली थीं। हजरत सूफी ख़ुद अपने पोते से फरमाते थे - ‘‘जिस वक़्त मैं दूल्हा बना था अगर कोई औरत तुम्हारी दादी से बेहतर होती तो मेरा निकाह उसी से होता।’’ आपकी बीवी का नाम बीबी ख़दीजा था। लाडनूं के हज़रत सय्यद फ़ुज़ैल अहमद हमदानी की बेटी थीं। बीबी ख़दीजा की इबादतो रियाज़त का आलम ये था कि हफ्ते में एक बार नीम के पत्तों से रोज़ा इफ्तार करती और घर के तमाम काम ख़ुद करती थीं। सूफी साहब ने फरमाया है कि -‘‘जिस किसी को कोई ज़रूरत हो तो शैख़ हमीद खुई या चाकपर्रां की दादी के रौज़े पर आकर अपनी ज़रूरत अल्लाह से कहे, इन्शाअल्लाह मन्नत जरूर पूरी होगी। सुब्हानल्लाह। सूफी हमीदुद्दीन नागौरी अलैहिर्रहमां ने बहुत से उलूम हज़रत मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई से हासिल किए हालांकि मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई के अलावा हज़रत हमीदुद्दीन खुई, हज़रत ख़्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाहि अलैहि से भी फैज़ हासिल किया, मगर मुरीद आप सुल्ताने हिन्दुस्तान हज़रत ख़्वाजा मुईनुदद्दीन अजमेरी अलैहिर्रहमा से हुए हैं। हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि को आपकी इबादतो रियाज़त और शफक़त की वजह से ‘‘सुल्तानुत्तारिकीन’’ कहा जाने लगा। बताया जाता है कि नागौर के करीब ही में ‘‘सवाली’’ नाम के एक कस्बे में हज़रत सूफी अलैहिर्रहमां ख़ुद खेती किया करते थे उसी गांव की वजह से आपको ”सवाली“ भी कहा जाने लगा। एक वजह यह भी बताई जाती है कि आपने लोगों को दीनी बातें समाझाने के लिए सवाल-जवाब का तरीक़ा अपनाया था और मुनाजरे में भी आपका कोई सानी न था इसी वजह से आपको ‘‘सवाली’’ भी कहा जाता है। हज़रत के ख़ानदान के बुजुर्गों से यह रिवाज चला आ रहा था कि वे अपने नाम से पहले सूफी लिखा करते थे इसी वजह से आपके नाम से पहले भी सूफी लिखा जाता है और यही वजह है कि आप ‘‘सूफी’’ भी कहलाते हैं। जैसा कि सैरूल आरिफीन में शैख जमाली ने शैख निज़ामुद्दीन औलिया के मुताबिक बयान किया है कि शैख हमीदुद्दीन रहमतुल्लाहि अलैहि के दादा शैख सईद बुजुर्ग हजरत उमर इब्ने ख़त्ताब रदियल्लाहु अन्हु की औलाद से हैं इसलिए आपको ”फ़ारूक़ी“ भी कहा जाता है।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन की शुरूआती तालीम घर पर ही हुई। कुरआन की तफ़्सीर और तफ़्सीरे कश्शाफ की तालीम मौलाना शमसुद्दीन हलवाई से हासिल करने का शरफ़ हासिल किया। हदीस की किताब ”मशारिकुल अनवार“ की तालीम 1220 ईस्वी में मुहद्दिसे बदायूं ने एक ही बैठक में आपको पूरी करवा दी।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि की दरगाह शरीफ सूबए राजस्थान के अज़ीमुश्शान शहर नागौर शरीफ में वाकेअ है। नागौर शहर के बड़े हिस्से में आपकी दरगाह बनी हुई है। दरगाह शरीफ़ में शानदार बुलन्द दरवाजा बना हुआ है, पत्थर पर बारीक नक्काशी देखने के लायक है। बताया जाता है कि यह आलीशान बुलन्द दरवाजा 15 शाबानुल मुअज्ज़म 730 हिजरी मुताबिक़ 1339 ईसवी में सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक की हुकूमत के ज़माने में तामीर हुआ। हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाहि अलैहि के मज़ार शरीफ पर कोई इमारत या गुम्बद बना हुआ नहीं है। आपका मज़ार शरीफ खुले आसमान जाल के दरख़्त के नीचे है। मज़ार के चारों तरफ सफे़द संगेमरमर का अहाता बना हुआ है।
हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी ने अपनी ज़िन्दगी को बेहद सादगी के साथ गुजारा और जो मिला उसी पर इत्मिनान व सब्र करते हुए रब का शुक्र अदा करते। हज़रत सूफी साहब अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी नागौर में सादगी के साथ बसर कर रहे थे। ग़रीबी का आलम ये था। इसी वजह और हालत की बिना पर नागौर के हाकिम ने थोड़ी ज़मीन और कुछ रुपये हज़रत की खिदमत में पेश किए मगर आपने उसे नामंजूर कर दिया। इस पर नागौर के हाकिम ने सुल्तान को खत लिख कर एक गांव और चांदी के 500 टके सूफी साहब की खिदमत में पेश करने के लिए मंगवा लिए। गुरबत का यह आलम था कि हज़रत की लूंगी फट गई थी और बीबी साहिबा के सर पर दुपट्टा भी ठीक से नहीं था जिसकी वजह से माई साहिबा अपने कुर्ते का पीछे का कपड़ा उठा कर सर को ढक लिया करती थीं। माई ख़दीजा ने अपने दुपट्टे और हज़रत की लूंगी के लिए सूत कात रखा था।
हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी हमेशा रोज़ा रखते थे, हज भी कर चुके थे रही नमाज़ तो उसके बारे में आता है कि जिस वक़्त सूफी साहब नमाज़ पढ़ते तो नमाज़ ही में इतने खो जाते कि किसी की ख़बर न होती। एक बार का वाक़िआ है कि आप मस्जिद मे नमाज़ पढ़ रहे थे कि मौलाना शम्सुद्दीन हलवाई और दूसरे मिलने वाले अजमेर से आपके पास मस्जिद में आए। सूफी साहब उसी तरह नमाज़ की हालत में रहे और इतनी देर नमाज़ में रहे वो लोग वापस चले गए। कुछ दिनों बाद फिर मुलाक़ात हुई तो उन लोगों ने शिकायत की - हम तेरे पास आए थे और तू नमाज़ पढ़ता रहा, तो आपने क़सम खाई कि मुझे बिल्कुल ख़बर न थी कि कौन आया और कौन गया, सुब्हानल्लाह। मौलाना हलवाई खुद मानते थे कि नमाज़ हो तो हमारेे हमीद जैसी। माख़ूज - तारीख़ सूफ़ियाए नागौर
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